रविवार, मई 8

दिल की सुनी जाए या सिर्फ दिमाग की!




आज  दिल और दिमाग की
एक बार फिर जमकर लड़ाई हुई
अजीब  सा तूफ़ान उठा था दिल में
सोचा सब कह दूं ज़माने से
जो भी दिल में दबा रक्खा है
बस अब वो निकल जाए।
मिल जाए थोड़ा यू दिल को मेरे सुकूं।

लेकिन दिमाग ने  दिल को रोका
कहा तू पागल हो गया है क्या
ज़माने की ज़रा सी भी
समझ है बता तुझमें
पोछ अपने ये आंसू
क्योंकि इसकी कदर कहां किसे?
रोया अगर खुल के
तो ज़माना कायर समझेगा
दुख को सुनाया तो वो तुझको
पागल समझेगा
गम को पीना सीख ले बच्चे
और लड़ हर पल ज़माने से
क्योंकि यही दवा है तेरी और दुआ भी।।

फिर दिल ने कहा इमोशन का क्या
उसे मैं कैसे समझाऊं
नासमझ है अब भी वो
उसे मैं कैसे बहलाऊं
दिमाग को आ गया गुस्सा
वो बोला
रोए जब भी तू
दर्द मुझको भी होता है
बहाया अश्क जब तूने
तो संग तेरे मैं भी रोया
नहीं देख सकता मैं हर पल
तुझे मायूस बैठा यूं
इसलिये कहता हूं
इमोशन झोक चुल्हे में
और मेरे संग-संग चल ले।।

दिल अब भी बेझिल है
मिला हर बार उसको ग़म
शायद अब नहीं होगा
इमोशन को भी संग ले लूं?
मोहब्बत कम नहीं होगा?

मैं चुपचाप सुनती हूं
इन दोनों की दंगाई
पर अब भी सोच में हूं डूबी
सच में कौन सही
दिल की सुनी जाए ये सिर्फ दिमाग की???



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