सोमवार, अप्रैल 11

डे लाइट सेविंग


डे लाइट सेविंग (DST):- दुनिया में कई देश ऐसे भी हैं जहां सर्दियों में सूरज की किरणें 6 महीने  पहुंचती ही नहीं और गर्मियों में ६ महीने सूरज डूबता ही हीं, जी हां आपने सही सुना उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव पर ऐसा ही होता है़। उत्तरी ध्रुव को गर्मियों में अर्ध रात्री का सूर्य (मिडनाइट सन) और ध्रुविय रात(पोलर नाइट) भी कहा जाता है। कोई भी व्यक्ति दिन के किसी भी समय खड़े होकर सूरज को क्षितिज पर घड़ी की उल्टी दिशा में अपने चारो ओर घूमते देख सकता है। जो लोग देश दुनिया की सैर करते हैं उन्हें तो इसकी जानकारी है लेकिन आज भी एक बड़ा वर्ग इस जानकारी से अछूता है।


                 डे लाइट सेविंग की अप्रेल २०१६ में १००वीं वर्षगांठ है .. जर्मनी को पहला देश माना जाता है जिसने ३०अप्रैल 1916 इसे पूर्ण रूप से लागू किया था...लेकिन अमेरिका के बेंजामिन फ्रेंकलिन ने   1784 में इस कॉन्सेप्ट को प्रपोज किया था। वहीं 1895 में न्यूजीलैंड के जॉर्ज हडसन ने इसका प्रस्ताव रखा था। उसके बाद केनेडा में भी 1908 में इसे लागू किया गया था।                        किताबों में तो हम सब ने ऐसा ही पढ़ा है लेकिन जब आप हकीकत में इसे महसूस करते हैं तो ये काफी रोचक लगता है। समय का ये जंप  गर्मियों में मार्च से अप्रैल के बीच होता है़ और सर्दियों में सितंबर से नवंबर के बीच होता है  यानी अलग- अलग देश इसे अलग-अलग समय पर लागू करते हैं। जैसे ब्रिटेन में ब्रिटिश समर टाइम  (BST) घड़ी एक घंटा आगे मार्च के अखरी रविवार को होता है और वापस एक घंटा पीछे अक्टूबर के आखरी रविवार को किया जाता है। गर्मियों में  जून के वक्त यहां कम से कम १६ घंटे ५० मिनट तक सूर्य की रौशनी मिलती है जबकि दिसंबर में सिर्फ ७ घंटे ४०मिनट का दिन होता है। मतलब गर्मियों में दिन लंबे, रातें छोटी जबकि सर्दियों में रातें लंबी और दिन छोटे होते हैं।
            आज के युग में तो सब कुछ इलेक्टोनिक हो गया है इसलिये हमें घड़ी को आगे या पीछे नहीं करनी पड़ती। हालांकि कुछ दीवार घड़ियों को बदलनी पड़ती है लेकिन अंदाजा लगाइये जब सभी घड़ियां चाबियों वाली हुआ करती होंगी तब इन्हें बदलना कितना मुश्किल होता होगा। ब्रिटेन में आज भी बड़ी बड़ी दीवार घड़ियों का चलन है और उनका समय भी हाथ से बदला जाता है। बकिंघम पैलेस में ३०० से भी ज्यादा ऐंटीक घड़ियों का कलेक्शन है जिसे हमेशा मेन्टेन रखा जाता है।

              जब मैं पहली बार यूरोप आई तो मैंने देखा रात के १० बजे तक सू्रज चमक रहा था  देख कर बड़ा आश्चर्य हुआ।  हालांकि लोग सड़कों पर कम ही दिख रहे थे। वहां के मूल निवासी समय पर उठते और समय पर सो भी जाते हैं उनकी दिनचर्या में सूरज की रौशनी उन्हें प्रभावित नहीं करती। जबकि हमारे लिये ये नया अनुभव था।
      उसके बाद मैं ब्रिटेन शिफ्ट हुई ...अक्टूबर में दीवार घड़ी खरीद कर लाई कुछ दिनों तक तो सही चली घड़ी लेकिन अक्टूबर के आखरी सप्ताह मेरी घड़ी एक घंटा आगे चलने लगी.. फोन की घड़ी तो सही थी ...मैंने सोचा शायद बैट्री ख़राब हो गई है..... मैं घड़ी को वापस सॉप में ले जाकर दिखाने की सोच रही थी ..फिर याद आया ...ओह नहीं घड़ी ख़राब नहीं हुई यहां तो समय बदल गया है। 



      जिन देशों में डे लाइट इफैक्ट होता है वहां काम के घंटे भी निर्घारित होते हैं। ऐसे देशों में सुबह के ८ बजे दुकानें खुलतीं हैं और शाम के ६ बजते ही बंद कर दी जाती हैं चाहे वो दोपहर क्यों न प्रतीत हो रहा हो। शुरू शुरू में आदत थी.. भारत में हम शाम के समय शॉपिंग के लिए निकलते थे पर जब ब्रिटेन आई तो यहां शाम के समय या तो दुकाने बंद मिलती थीं या बंद होने वाली होती थीं।  कुछ रेस्टोरेंट और फूड़ शॉप को ही लेट नाइट  ओपनिंग  की  अनुमति मिलती है।
पुराने जमाने में डे लाइट के फायदे और नुक्सान दोनों थे।  DST लागू करने का उद्देश्य काम के घंटे के बाद सूर्य के प्रकाश का फायदा उठाना था  और ऊर्जा को संरक्षित करना था लेकिन इसके साथ ही बाहर काम करने वालों के लिए दिन लंबा होना मतलब काम के घंटे का बढ़ जाना भी था। लंबा दिन होने से काम के घंटे में इजाफ़ा हो जाता था जबकि शरीर थक कर चूर हो चुका होता था। इसलिये ये कॉन्सेप्ट लोगों के हित के लिये लागू किया गया।
              इसका ज्यादा असर ध्रुव के आस पास के देशों में देखने को मिलता है।  यूरोपिय देशों में DST को ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, स्पेन, इटली,बुलगारिया, नॉर्वे, स्विटजरलैंड आदि देश लागू करते हैं जबकि रूस, आइसलैंड, जॉर्जिया,अर्मेनिया और बेलारूस इसे नहीं अपनाते ... वहीं अमेरिका में अलग-अलग Time zone में अलग अलग दिन इसे अपनाया जाता है।   नॉर्थ अमेरिका के कई देश,  साउथ अमेरिका के कुछ देश, यूरोप के कई देश, मिडिल इस्ट के कुछ देश, न्यूजीलैंड और साउथ इस्ट ऑस्ट्रेलिया के कुछ देश इसे अपनाते हैं जबकि ज्यादातर एशियाई और अफ्रीकी देशों में डे लाइट का ज्यादा असर देखने को नहीं मिलता।