शनिवार, मई 7

ऐ ज़िन्दगी


कुछ ग़लतियां मेरी
कुछ नादानियां मेरी
कुछ बदमाशियां मेरी
कुछ ख़ामोशियां मेरी

कुछ मजबूरियां मेरी
कुछ सच्चाईयां मेरी
कुछ उलझने मेरी
कुछ अनकही बातें
कुछ उल्फ़तें मेरी

मैं हूं इन सब की अपराधी
मुझको याद है सारी
कसम से ग़फ़लतें मेरी
जो काग़ज़ पर लिखा होता
तो सब कुछ  मिट गया होता
पर किस्मत में जो लिखा है
भला मैं कैसे झुठला दूं।।



 मगर ग़ौर से सुन ऐ ज़िन्दगी
ख़ता का लेखा-जोखा है
तू तो सज़ा गिनाती जा।।
जो भी है तेरे स्टॉक में
सारी इसी जनम में मुझे सुना।।


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