शुक्रवार, सितंबर 24

बदलना सीख लिया है...

बे-रंग नहीं ये ज़िंदगी...
मैंने रंग बदलना सीख लिया है

कंटीले रास्तों पर चलते-चलते
गिरकर संभलना सीख लिया है

ज़ख़्म नासूर न बन जाए हमेशा के लिए
तभी तो मरहम को मलना सीख लिया है

ग़म से भरी हैं पलकें तो क्या
नमी ने पिघलना सीख लिया है

तुम मुझे ठुकराओ इससे पहले
मैंने नीयत को पढ़ना सीख लिया है

टूटती नहीं अब कांच के टुकड़ों की तरह
क्योंकि मैंने हिम्मत कर...चलना सीख लिया है

देख ली है मैंने भी दुनिया बहुत
अब इंसान परखना सीख लिया है

शुक्रवार, सितंबर 10

मीडिया है कमाल

मीडिया...यारों चीज बड़ी है कमाल
यहां बिछा है हर तरफ ...
खबरों का ही मायाजाल...।।

इसके दर पे
संपादक रहते हैं हमेशा बेहाल
उन्हें रहता है अक्सर खबरों का ही मलाल
सुबह-शाम, उठते-बैठते हर वक्त
उन्हें आते हैं खबरों के सपने।।

जितनी भी खबरें दो उनके आगे परस
एक बार में जाते हैं वो गटक
थोड़ी देर में खबरें हो जाती है...हजम
और फिर करते हैं...खबरों का महाजाप।।

इनपुट डेस्क है खबरों का सूत्रधार
पत्रकार करते हैं खबरों की पड़ताल
ऑउटपुट डेस्क करते हैं खबरों का पोस्टमार्टम
ऐंकर को रहता है पोस्टमर्टम रिपोर्ट का इंतजार।।

पीसीआर में लगती है रिपोर्ट पर मुहर
और खबरें हो जाती है कुछ पल में ऑन एयर
हफ्ते भर में आ जाती है टीआरपी रिपोर्ट
जिसके बाद...एक बार फिर लगती है
पूरी टीम की अच्छी-भली क्लास।।

पर दोस्तों...
हर मीडिया हाउस की है ऐसी ही सरकार।।

नोट: इस कविता के सभी पात्र काल्पनिक हैं...इसका किसी व्यक्ति विशेष से कोई सरोकार नहीं...ये मात्र भावों की अभिव्यक्ति है..अतः इसका गलत अर्थ न लगाए(एक व्यंग)

सोमवार, सितंबर 6

क्या नाम दूं?

-->
इस जिंदगी को...
मैं क्या नाम दूं...?

कभी धूप कहूं कभी छांव कहूं
कभी सैलाबों का नाम मैं दूं
कभी जीत कहूं, कभी हार कहूं
कभी कुदरत का मैं प्यार कहूं

कभी शोर कहूं...कभी मौन कहूं
कभी खामोशी का जाम कहूं....

कभी गम की शाम कहूं
तो कभी इठलाती मुस्कान कहूं

कभी खुशियों का पैगाम कहूं
या जीवन का संग्राम कहूं!

गुरुवार, सितंबर 2

शब्दों की उधेड़बुन



शब्दों का जाल भी कभी कभी हमें कैसे जकड़ लेता है...इसकी बानगी देखने को मिली एक दिन मेरे ऑफिस में...दरअसल मैं एक खबर बनाने बैठी और मुझे एक शब्द इस्तेमाल करना था...मैं ''कश्मकश'' शब्द का प्रयोग करना चाहती थी... लेकिन मैंने इस शब्द का इस्तेमाल काफी दिनों से नहीं किया था इसलिए थोड़ी सी दुविधा में पड़ गई...मुझे थोड़ा कन्फ्यूजन था कश्मकश शब्द सही कैसे लिखा जाता है... असल में मैं कशमकश के ''श'' पे अटक गई मुझे लग रहा था कि पहला ''श'' पूरा होता है या आधा...हालांकि ये जो शब्द आप अभी लिखा देख रहे हैं... इसने पूरे ऑफिस को थोड़ी देर के लिए परेशान कर दिया...कोई हमें बता रहा था ''कशमकश''  सही है कोई कह रहा था ''कसमकश'' सही है तो कुछ लोग कह रहे थे ''कसमकस'' सही है... तो कुछ ने ''कश्मकश'' पर मुहर लगाई..एक शब्द के इतने सारे रूप देखकर मेरी उलझन और बढ़ गई...


        अब कुछ लोग नेट पर शब्द छानने लगे तो कुछ ने डिक्शनरी पलटनी शुरू कर दी...किसी ने अपनी सेखी
बघारते हुए कहा मैं तो 16 आने सही कह रहा हूं...यही सही है....देख लो...हिन्दी में जिसकी पकड़ अच्छी है मैं उनके पास भी गई...तो वो बेचारे भी थोड़ा सा कन्फ्यूजिया गए...डिक्शनरी में कश-मकश लिखा मिला तो इंटरनेट  लोगों को और उलझन में डालने वाला निकला...गूगल में तो ''कश्मकश''... ''कसमकश'' ...''कशमकश'' तीनों सही निकले...हालांकि ''कसमकस'' और ''कश्मकस'' को गूगल ने गलत साबित किया....और शब्दकोश ने कश्मकश को सही करार दिया....लेकिन जरा सोचिए एक शब्द हमें इतनी परेशानी में डाल सकता है कभी आपने सोचा होगा...नहीं ना...

अब तो लोग अपनी सुविधाअनुसार शब्दों का इस्तेमाल करने लगे हैं...जैसे कुछ लोग 'रोशन' लिखते हैं तो कुछ 'रौशन'....मात्राओं में कई बार हेर फेर देखने को मिलती है....कही आप 'काबिलियत' देखेंगे तो कहीं 'काबीलियत'
लेकिन सहीं क्या है इससे लोग और दिग्भ्रमित होते हैं...एक्सर जब हम दुविधा में होते है तो डिक्शनरी का सहारा लेते हैं..लेकिन जहां किसी शब्द की शुरूआत आधे शब्द से होती है वहां डिक्शनरी में भी परेशानी हाथ लगती है....जैसे एक शब्द है ' ब्योरा'...कुछ लोग इसे 'ब्यौरा' भी लिखते हैं लेकिन डिक्शनरी में इस शब्द की तलाश जरा करके देखिए...सच्चाई आपको साफ नजर आएगी...मेरे एक सहयोगी का कहना है कि ''मात्राओं में भेदभाव मैं नहीं कर सकता...किसमें मात्रा छोटी होती है किसमें बड़ी मुझे फर्क करना नहीं आता'' लेकिन क्या आप जानते हैं ....एक शब्द में एक छोटी सी मात्रा के गलत इस्तेमाल से शब्द अर्थ से अनर्थ सिद्ध हो सकता है...

अब जरा सोचिए शब्दों के जानकार कितने कम होते जा रहे हैं...जो ऐसा ही क्यों लिखा जाता है इससे आपको संतुष्ट कर सकें...कम ही लोग है जो शब्दों के सही इस्तेमाल को प्रमाणित कर पाएं...वाकई हिन्दी में भी कुछ शब्द ऐसे हैं जो आपको सोचने पर मजबूर कर देंगे...कुछ लोग हिन्दी का आसान भाषा समझते हैं लेकिन शायद उन्हें इसकी गहराई का अंदाजा नहीं है....और हिन्दी लिखने या पढ़नेवालों को वो तुच्छ समझते हैं लेकिन मेरा मानना है...
''हिन्दी एक बिंदी है भारत के भाल पर''


मेरा मंगेतर इन दिनों मैक्सिको गया हुआ है और उसे स्पेनिश बिल्कुल नहीं आती बेचारा एक दिन चिकन खाने निकला ...अब वहां उसे समझ नहीं आ रहा था...कि वो सामने वाले को कैसे समझाए कि उसे चिकन खानी है...वहां लोग अंग्रेजी समझ नहीं रहे थे....और उसे समझ नहीं आ रहा था कि उसे चिकन परोसा गया है या किसी और का गोश्त...बेचारे को घंटों मशक्कत के बाद पता चला की उसे चिकन ही परोसा गया है...उसे अपने ऑफिशियल वर्क के लिए अलग अलग देशों का सफर करना पड़ता है...अब बेचारा कहां कहां की भाषा सीखे...