सोमवार, मई 24

अशांति कब तक?

थाईलैंड जिसका प्राचीन भारतीय नाम श्याम्देश था ..इसे सियाम के नाम से भी जाना जाता है...थाई शब्द का अर्थ थाई भाषा में आज़ाद होता है। 1992 में हुई सत्ता पलट में थाईलैंड एक नया संवैधानिक राजतंत्र घोषित कर दिया गया।...बौद्घ धर्म के अनुयायियों की ये धार्मिक स्थली मानी जाती है...लेकिन धर्म की इस नगरी को सबने खून से लाल होते देखा....



थाईलैंड में भले ही अब हालात सामान्य हो गए हों और जिंदगी फिर से पटरी पर लौटने लगी हों...लेकिन पिछले कुछ दिनों में शांत कहे जाने वाले इस देश में अशांति का आलम व्याप्त रहा...स्कूल, सड़कें, सरकारी एजेंसियां आदि कई दिनों तक बंद रहे....

बौद्ध अनुयायियों के लिए प्रसिद्ध धार्मिक स्थल कहे जानेवाले थाईलैंड का  पिछले कुछ दिनों में...रक्त रंजित चेहरा सामने आया...सरकार विरोधी लाल कमीज धारकरों के विरोध प्रदर्शन ने विश्व पटल पर देश की छवि धुमिल की...ऐसे में पिछले कुछ महीनों से चल रहे विवाद ने देश की आर्थिक दशा को तो नुकसान पहुंचाया ही....यहां आनेवाले पर्यटकों को भी सोचने पर मजबूर कर दिया....इससे देश के पर्यटन विभाग को मिलनेवाले राजस्व में कितना नुकसान हुआ होगा इसका  अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है....देश की दुर्दशा को देखते हुए विदेशी पर्यटकों ने अपनी थाईलैंड की यात्रा रद्द कर दी....इस बीच यहां के पर्यटन स्थल पर्यटकों की बाट जोहते रहे

काफी दिनों से चल रहे विवाद ने देश के कारोबार पर भी खासा असर डाला....थाइलैंड का व्यापार काफी दिनों ठप्प पड़ा रहा..... यहां चल रहा गृह युद्ध  देश की आम जनता के लिए भी परेशानी का सबब बन गई
प्रधानमंत्री अभिसीत के ख़िलाफ़  हज़ारों की संख्या में लोगों ने बैंकाक की सड़कों पर महीनों डेरा डाले रखा... लाल कमीज़ में ये प्रदर्शनकारी प्रधानमंत्री के इस्तीफ़े और नए चुनावों की मांग करते रहे....हालातों पर काबू न होता देख सकरार ने यहां कर्फ्यू भी लगाया...प्रदर्शनकारियों और सेना के बीच हुई झड़पों में अब तक कितने ही लोग मारे गए और कई दर्जन लोग घायल भी हुए...लेकिन आखिरकार विरोध प्रदर्शनकारियों को पीछे हटना पड़ा.... पूर्व प्रधानमंत्री थाकशिन शिनावात्रा के समर्थक प्रदर्शनकारी नया चुनाव चाहते रहे....उनका कहना था कि वर्तमान सरकार अवैध है क्योंकि वो चुनाव जीतकर सत्ता में नहीं आई. ..लाल कमीज़ धारी प्रदर्शनकारी चाहते थे कि संसद भंग की जाए और नए चुनाव कराए जाएं....लेकिन वर्तमान सरकार इसके पक्ष में नहीं रही...हालांकि प्रधानमंत्री ने 14 नवंबर की चुनाव की तारीख़ दी है....वैसे थाइलैंड में अगले साल नवंबर में चुनाव होने हैं....
लेकिन लंबे समय तक चले इस विवाद का परिणाम क्या निकला..किसके खाते में क्य़ा-क्या आया...ये सोचने वाली बात है....पूरे प्रकरण में नुकसान वहां की आम जनता को उठाना पड़ा...यदि देश में प्रजातंत्र है तो अगले चुनाव में वो खुल कर सामने आ ही जाएगा....अब देखना ये होगा कि जनसमर्थन किसे हासिल होता है..प्रधानमंत्री अभिसीत वेजाजिवा को या फिर लाल कमीजधारी प्रदर्शनकारियों के नेता थाकशिन शिनावात्रा को....

बुधवार, मई 19

LIFE IN A METRO




दिलवालों की....दिल्ली



भागती दौड़ती....दिल्ली


हम सब की प्यारी...दिल्ली


यहां जिंदगी चलती-फिरती नहीं....रेंगती सी नजर आती है....

 
 
 
मुझे कुछ दिनों पहले दिल्ली जाना पड़ा... हालांकि इससे पहले मैं साल 2004-05 में दिल्ली गई थी...तब मैं ग्रेजुएशन में थी औऱ IIMC में दाखिले की कोशिश कर रही थी...उस समय मेरे पिताजी मेरे साथ थे...और उन दिनों मेरे देखने का नजरिया थोड़ा अलग था....मैं उन जगहों को बड़े गौर से देखती थी जिन्हें मैंने किताबों में पढ़ा हो....हालांकि नजरिया अब भी ज्यादा नहीं बदला है....मैं ऐतिहासिक जगहों को बड़े गौर से देखती हूं....दिल्ली की ये मेरी दूसरी यात्रा थी... इस बार मैं अकेली दिल्ली के लिए रवाना हुई थी...और मैंने दिल्ली में काफी बदलाव देखा...मुझे यहां का मेट्रो कल्चर बड़ा अच्छा लगा....


इतने कम समय में दिल्ली काफी बदली सी नजर आई...यहां मेट्रो ने दूरियां जैसे कम कर दी हों....ऐसा लगा जैसे लोगों की लाइफ में मेट्रो की अहमियत काफी बढ़ गई है...हालांकि उस वक्त भी मैंने शौकिया तौर पर मेट्रो से सफर किया था... लेकिन तब कुछ ही हिस्सों तक मेट्रो जाती थी....



दिल्ली में मेट्रो का जाल सा बिछ गया है...जिधर देखो उधर मेट्रो की लाइने बिछाई जा रही हैं....न केवल आसमान की ऊचाइयों को छूने की कोशिश...बल्की धरती की गहराई में भी मेट्रो ने अपनी पैठ बना ली है...धरती की सतह पर जहां हम रह रहे हैं... उसके नीचे भी चलती फिरती एक खूबसूरत दुनिया बनती जा रही है....ऐसा लगता है जैसे आने वाले समय में दिल्ली के कोने-कोने में मेट्रो ही मेट्रो नजर आएगी....वाकई इसने दिल्ली में ट्रैफिक की समस्या को कम करने में मददगार भूमिका निभाई है....



एक दिन मैं यूं ही अपने कुछ पुराने मित्रों से मिलने  निकली...मैं ऑटो लेकर दिल्ली यूनिवर्सिटी पहुंची....वहां से  मैंने यूनिवर्सिटी से नोएडा सेक्टर 18  के लिए टिकट खरीदा...जब मैं स्टेशन के
अंदर घुसी तो ऐसा लगा...मैं एयरपोर्ट के अंदर जा रही हूं..सुरक्षा व्यवस्था काफी चाक चौबंद...ऐसा भला हमारे रेलवे स्टेशन पर कहां ? कुछ पल का इंतजार और लो आ गई हमारी गाड़ी...मैं अंदर दाखिल हुई...बाहर इतनी तेज धूप औऱ मेट्रो के आंदर दाखिल होते ही गर्मी काफूर हो गई.... ऐसा लग रहा था....जैसे 5-5 मिनट के अंतराल में स्टेशन आ रहा हो...2 घंटे का सफर कैसे कट गया पता ही नहीं चला.... सच में मजा आ गया....

कुछ दिनों पहले मैं अपने एक रिश्तेदार की कार से दिल्ली के कुछ हिस्सों में गई हालांकि मैं शाम करीब 5 बजे निकली लेकिन कार के अंदर भी ऐसा लगा जैसे तपिश से चेहरा जल जाएगा...एसी ने तो जैसे काम करना बंद कर दिया हो....मैंने उस दिन को याद किया...सच कहूं अपनी गाड़ी से बेहर सफर मुझे मेट्रो का लगा...

मंगलवार, मई 4

एक पत्रकार की हत्या



निरूपमा पाठक....एक ऐसा नाम जो अब तक था..गुमनाम …लेकिन अचानक 29 अप्रैल को हुई उसकी हत्या ने उसे सुर्खियों में ला दिया...आरोपों के घेरे में कोई औऱ नहीं बल्कि उसे जन्म देने वाली मां ही निकली...निरूपमा के दोस्तों ने भले ही न्याय का दरवाजा खटखटाया हो...और राष्ट्रीय महिला आयोग से गुहार लगाई हो....लेकिन कभी किसी ने ये सोचने की कोशिश की कि उसकी मां ने ये जघन्य अपराध क्यों किया...नहीं....
क्योंकि हम आरोपी को सबसे बड़ा गुनहगार समझते हैं..हालांकि अभी ये मामला अदालत में है..और इस वक्त किसी निष्कर्ष पर पहुंचना जल्दबाजी होगी...लेकिन एक मां खुद अपनी कोख की कातिल कैसे हो सकती है...आखिर मां किलर कैसे बन गई...ये बड़ा सवाल है



दरअसल 23 साल की निरूपमा दिल्ली के एक अंग्रेजी अखबार में पत्रकार थी और उसका अपने ही साथ काम करने वाले मित्र प्रियभांशु के साथ अफेयर था...ये बात निरूपमा के माता- पिता भी जानते थे...माता-पिता ने अपनी बेटी के लिए कितने सपने संजोए होंगे... इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने देश के सबसे बड़े मीडिया संस्थान {IIMC} भारतीय जनसंचार संस्थान में बेटी का दाखिला कराया...जिसमें दाखिला के लिए पत्रकारिता के छात्र तरसते हैं...उसके पिता बैंक के अधिकारी हैं....फिर क्यों कर दी गई पत्रकार निरूपमा की हत्या?

माता पिता ने अपनी बेटी की शिक्षा में कोई कमी नहीं रखी...वो बेटी को हर वो मुकाम दिलाना चाहते थे जो एक लड़की का ख्वाब हो...तभी तो दिल्ली जैसे शहर में उसे अकेले रहने की इजाजत दी गई....झारखंड के कोडरमा की रहनेवाली निरूपमा के माता-पिता संकुचित मानसिकता के नहीं हो सकते क्योंकि उन्होंने अपनी बेटी को हर वो छूट दी जो एक बेटे की दी जाती है...लेकिन शादी ब्याह के मामले में हमारा समाज आज भी अपनी सीमाओं में बंधा है....उन्हें अपने समाज, अपनी जाति का मोह आज भी घेरे हुए है...तभी तो निरूपमा के माता-पिता नहीं चाहते थे कि उनकी बेटी दूसरी जाति के लड़के से विवाह रचाए...निरूपमा को झांसा देकर घर बुलाया गया....कहा गया कि उसकी मां बीमार है..निरूपमा आनन-फानन में घर पहुंची...उसने अपने दोस्त प्रियभांशु को मैसेज किया कि वो ऐसा वैसा कोई कदम न उठाए जिससे उसे कोई परेशानी हो... वह 19 अप्रैल को कोडरमा आई थी और उसे 28 अप्रैल को दिल्ली लौटना था। लेकिन 29 अप्रैल को उसके ही घर से बरामद हुई उसकी लाश


निरुपमा के प्रेम संबंध से उसके अभिभावक नाराज थे। निरूपमा की मौत सुबह हुई और शाम को पुलिस को सूचना दी गई...कि करंट लगने से उसकी मौत हो गई...उसके बाद उसकी मां ने बहुत तेजी से अपने बयान बदले। पहले उन्होंने कहा कि निरुपमा की मौत बिजली लगने से हुई है। बाद में उनके परिवारवाले एक स्युसाइड नोट लेकर सामने आए और कहा कि उसने छत के पंखे से लटककर जान दे दी। पोस्टमार्टम रिपोर्ट के अनुसार निरुपमा की हत्या दम घुटने से हुई थी, जो कि तकीए से की गई है। साथ ही वह 10-12 हफ्ते की गर्भवती भी थी।"

मामला यहां जाकर खटकता है...क्योंकि निरूपमा के माता-पिता उसके प्रेम संबंधों को तो पचा सकते थे लेकिन इस दाग को कैसे पचाते....इसलिए निरूपमा को कर दिया गया मौत के हवाले....जो माता-पिता अपनी बच्ची को बुलंदियों पर देखना चाहते थे उन्होंने अपने ही हाथ खून से रंग लिए....
हालांकि उन्होंने समाज में अपनी प्रतिष्ठा बचाने की खातिर ये कदम उठाया लेकिन उनका ये फैसला दुनिया के सामने हो गया जग-जाहिर औऱ वो पहुंच गए सलाखों के पीछे....

दरअसल ये मामला प्रेम का नहीं बल्कि समाज में अपनी इज्जत का है....इज्जत के नाम पर निरुपमा की हत्या कर दी गई....निरुपमा पत्रकार थी इसलिए उनके मित्रों ने मामले को ख़त्म नहीं होने दिया....वरना न जाने हर दिन बिहार, बंगाल, झारखंड, राजस्थान और पूरे देश में कितनी निरुपमाओं को जाति-बिरादरी के नाम पर बलि चढा दी जाती है. हां ये ज़रुर है कि इसकी जानकारी कम मिल पाती है क्योंकि तथाकथित सभ्य समाज इस पर पर्दा डाल देता है..लेकिन निरूपमा ने किया था एक अपराध जिसे समाज कभी नहीं पचा सकता....
आज निरुपमा की मां अपनी बेटी की हत्या के सिलसिले में गिरफ़्तार है..... पोस्टमार्टम रिपोर्ट साफ़ कहती है निरुपमा का गला घोंटा गया है. कहीं न कहीं कोई अपना ही ज़िम्मेदार है लेकिन लगता नहीं कि उन्हें इसका ज़रा भी अफ़सोस हैं क्योंकि उनके चेहरों पर जाति का दंभ साफ़ दिखता है.....अपनी प्रतिष्ठा की खातिर अपनी बेटी को हमेशा खत्म करना उन्होंने बेहतर समझा...
निरुपमा ने और उसके अजन्मे बच्चे ने विजातीय प्रेम की बड़ी क़ीमत चुकाई है.... निरुपमा ने तो जीवन के 23 साल ही देखे....प्रेम भी किया लेकिन उस बच्चे का क्या कसूर था जो उसके गर्भ में था.... अगर निरुपमा के गर्भ में बेटी थी तो अच्छा हुआ वो दुनिया में आने से पहले ही चली गई क्योंकि ऐसे समाज में लड़की होकर पैदा होना ही शायद सबसे बड़ा गुनाह है. ....
मेरी संवेदना निरूपमा के माता पिता के साथ कतई नहीं....और मेरी संवेदना निरूपमा के साथ भी नहीं... कि उसने उच्च संस्थान से शिक्षा पाई थी.... मेरी संवेदना इसलिए भी नहीं कि वो एक पत्रकार थी....मेरी संवेदना निरूपमा के साथ इसलिए है क्योंकि उसे सुधरने का एक मौका दिया जा सकता था....क्योंकि किसी से प्यार करना गलत नहीं....हां ये जरूर गलत है कि उसने शारिरिक संबंध बनाए...लेकिन निरुपमा की हत्या हुई है तो उसके हत्यारों को सज़ा मिलनी ही चाहिए चाहे ये हत्यारे उसके अपने ही क्यों न हों.....