शनिवार, अगस्त 28

मैं पंछी...गगन की

मैं पंछी उन्मुक्त गगन की
मत बांधो मुझे डोर में
सारे पंख टूट जाएंगे
पिंजड़े की उस छोड़ में...

   दो मुझको रिश्तों का बंधन
   पर उसको यूं मत कसना


हंसकर उसे निभाना होगा
कसकर उसे पिरो देना...


     गांठ छुड़ाना मुश्किल होगा...
     अरमान हमारी मत खोना


मैं पंछी उन्मुक्त गगन की
बांधो मुझको डोर में

रिश्तों की डोर मुलायम होगी
जी लूंगी उस कोर में

शुक्रवार, अगस्त 27

पहचान छीन लेता है...

कोई हमसे हमारी पहचान छीन लेता है
कोई पल भर में सारे एहसान छीन लेता है
हंसते हैं कम कुछ पल के लिए अगर
तो कोई पल भर में सारी मुस्कान छीन लेता है


रेत पर हम बड़े अरमानों से बनाते हैं घरौंदा
लेकिन एक तूफान हमारे सारे अरमान छीन लेता है
हमारी सदियों की मेहनत को कोई...
बस यूं ही... हंस कर कोई सरेआम छीन लेता है

गुरुवार, अगस्त 19

रंग बदले है दुनिया!


 अपनी जिंदगी में बिताए लम्हों में शादय सिनेमाहॉल से जुड़ी आप सबकी की भी कुछ न कुछ खट्टी-मीठी यादें होंगी...
सिनेमाहॉल जाने पर किसी को डांट खानी पड़ी हो या चोरी छिपे जाने पर किसी परिचित ने देख लिया हो... एक बार मैंने और मेरे भाई ने भी महज टीवी देखने किसी दूसरे के घर जाने पर पिता की डांट खाई थी...

वहीं एक बार तो ऐसा हुआ की हमारी कक्षा के कुछ लड़के स्कूल से बंक मारकर सिनेमाहॉल पहुंचे पिक्चर देखते वक्त वो आगे की सीट पर बैठे थे और उनकी
सीट से एक लाइन पीछे हमारे स्कूल की ही दो मैडम फिल्म देखने पहुंची थी...लड़के फिल्म के खुछ हॉट सीन आने पर छीटाकशी भी कर रहे थे...जब इंटरवल आया और हॉल की लाइट जली तो लड़कों ने पीछे पलटकर देखा....अपने पीछे स्कूल की टीचर को पाकर तो जैसे उनके पैरों तले जमीन खिसक गई हो...उनमें से एक तो किसी टीचर का  बेटा भी था....फिर क्या था उसकी तो घर जाने पर धुनाई पक्की....बेचारे इंटरवल के बाद सज्जन बच्चों की तरह चुपचाप बैठे रहे और फिल्म खत्म होते ही खिसक लिए....

  पहले अक्सर परिक्षार्थी  छुप-छुप कर सिनेमा हॉल जाया करते थे...पहले सिनेमाहॉल जाना कितना मुश्किल हुआ करता था ना....लेकिन अब देख लीजिए लोगों को बस नई और अच्छी फिल्मों के आने का इंतजार रहता है...सिनेमाघरों में भीड़ टूट पड़ती है...हां कुछ फिल्मों को दर्शकों का टोटा रहता है...लेकिन दर्शक हमेशा अच्छी फिल्मों की ताक में रहते हैं... अब धड़ल्ले से हर वर्ग के लोग आपको सिनेमाघरों में नजर आएंगे...छुट्टी का दिन हो तो.... या आप किसी दिन मॉर्निग शो  देखने जाइए आपको वहां स्कूली बच्चों और कॉलेज के स्टूडेंटों की बड़ी तादात  दिख जाएगी...ऐसा भी नहीं है कि इसमें सिर्फ लड़के ही नजर आए... इसमें लड़कियों उतनी ही तादात में शामिल होती हैं...वैसे लड़कियां भी अब फिल्में देखने के मामले में पीछे नहीं हैं....
दुनिया के किसी भी कोने में आपको ये नजारा आसानी से दिख जाएगा..अब खासकर कपल्स भी फिल्में देखने खूब आते हैं...

अब कुछ फिल्में भी ऐसी बनने लगी है जिन्हें स्कूल से बच्चों को दिखाने के लिए ले जाया जाता है...जैसे फिल्म तारे जमी पर को ही ले लीजिए...मुझे याद है जब फिल्म टाइटेनिक आई थी...उस वक्त तो नहीं लेकिन कुछ साल बाद जब में कक्षा 11 वीं में थी तो हमारे स्कूल में VCR के जरिए ये फिल्म दिखाई गई थी क्योकि इसकी स्टोरी हमारी 11 वीं की अंग्रेजी के पाठ्यक्रम में थी... अब छुट्टियों के दिन अक्सर आपको माता पिता के साथ बच्चे भी सिनेमाघरों में नजर आएंगे...माफ कीजिएगा अब सिनेमाहॉल का नहीं अब तो मॉल और मल्टीप्लेक्स का जमाना है...तो मॉल और मल्टीप्लेक्स में हर वर्ग के लोग आपको नजर आएंगे...पहले बच्चों को सिनेमाहॉल जाने की परिवार की ओर से बड़ी मुश्किल से आज्ञा मिलती थी...लेकिन अब बच्चों को भी शौकिया तौर पर लोग ले जाते हैं...आखिर उनकी इच्छाओं को क्यो मारा जाए...

अब फिल्मों की बात की जाए और ऑफिस में काम करने वालों को इससे दूर रखा जाए भला ये कैसे हो सकता है...ऑफिस से मेरा मतलब है काम करने वाले  कर्मचारी....उनके लिए हफ्तेभर में एक  छुट्टी का दिन ही तो  मिलता है खुद पर समय खर्च करने के लिए...ऐसे में वो बीच बीच में फिल्में देख कर अपने दिल को थोड़ा तो सुकून दे ही सकते हैं....इनमें सबसे ज्यादा फिल्मों के शौकीन होते हैं I.T. सैक्टर में काम करने वाले...उनके लिए दो दिन की छुट्टी का मतलब होता है फुल फन...चार यार दोस्तों का साथ मिला और निकल लिए फिल्म देखने...किसी को फिल्म की हिरोइन पसंद आ गई तो कोई फिल्म के गानों पर ही कुर्बान हो गया...

अब फिल्म हॉल जाने को लेकर लोगों का नजरिए थोड़ा बदला है....और ये है आज की रंग रंगीली हमारी दुनिया

बुधवार, अगस्त 18

ब्रेकिंग न्यूज...''मिल गया नत्था''

नत्था हमारे साथ

कहते हैं मीडिया की नजरों से कोई नहीं बच पाया है...फिर भला नत्था कैसे बच सकता है? 
फिल्म पीपली लाइव में भले ही नत्था मीडिया की नजरों से बच निकला हो....
लेकिन रियल लाइफ में नत्था मीडिया की सुर्खियों में आ ही गया...

दरअसल नत्था यानी ओंकार दास मानिकपुरी भिलाई के पास स्थित जामुल का रहने वाला है... वहीं बुधिया की भूमिका निभाने वाले रघुवीर यादव मध्य प्रदेश के जबलपुर से ताल्लुक रखते हैं। फिल्म में देहाती अम्मा का प्रभावी और मजेदार किरदार कर रहीं फर्रुख जफर लखनऊ की हैं तो धनिय
बनी शालिनी वत्स पटना से हैं।
फिल्म की रिलीज के बाद पहली बार नत्था अपने गृह राज्य पहुंचा...और प्रदेशवासियों ने उसे अपनी पल्कों पर बिठा लिया....एक आम इंसान की जिंदगी में फर्श से अर्श तक का फासला यहां साफ नजर आया...
आमिर की फिल्म में ब्रेक मिलना...और फिल्म में इतने सारे किरदारों के बीच अपनी अमिट छाप छोड़ने वाले नत्था से प्रदेश ने खुद को गौरवान्वित महसूस किया....इस फिल्म में मंजे हुए कलाकार नसरूद्दीन शाह और रघुवीर यादव की मौजूदगी के बावजूद ओंकारदास ने अपनी अलग पहचान बनाई...ऐसा लगता है जैसे फिल्म बस नत्था के लिए ही बनाई गई हो....हालांकि इस फिल्म में नत्था के बेटे ने भी अभिनय किया है लेकिन नत्था का किरदार सभी पात्रों का केन्द्र बिन्दू बन गया...

फिल्म में किसानों की आत्महत्या पर कम मीडिया पर ज्यादा फोकस किया गया है...सरकार की कम और मीडिया की ज्यादा खिंचाई की कई है......मीडिया में कार्यरत होने के बावजूद मैं कहूंगी इस फिल्म में सरकार और मीडिया को आईना दिखाने का काम किया है...फिल्म में मीडिया पर फिल्माए गए दृश्यों को देखते वक्त मुझे ऐसा लगा जैसे समचमुच मैं अपनी दुनिया में पहुंच गई हूं...वैसे ही लोग... वैसा ही माहौल और खबरों को लेकर वैसी ही मारामारी....स्टूडिया का सीन हो या रिपोर्टिंग  स्पॉट सभी स्वाभाविक लगे....खबरों के चयन का तरीका हो या बॉस की प्रतिक्रिया...सभी मेरी जिंदगी के काफी करीब नजर आए...एक पल तो ऐसा लगा मीडिया चैनल के किसी ऑफिस में आकर फिल्म की शूटिंग कर ली गई हो...वैसे भी फिल्में समाज का आईना होती हैं और आईना कभी झूठ नहीं बोलता...कम बजट की इस फिल्म ने साबित कर दिया है कि लोगों का टेस्ट कैसा है...