शनिवार, अक्तूबर 10

बेज़ुबान बुढ़ापा



अपने

हुए

पराए






एक बार रिपोर्टिंग के सिलसिले में मैं एक वृद्धाश्रम पहुंची...जनवरी की पहली तारीख़...साल का पहला दिन और इस अवसर पर मैं उनके बीच मौजूद थी...मैं जानना चाहती थी कि ये बुजुर्ग साल का स्वागत किस तरह करते हैं...अपने घर परिवार से निष्कासित इन बुजुर्गों की जिंदगी में मैं थोड़ी सी रौशनी भरना चाहती थी...मुझे वहां जाकर बेहद अजीब लग रहा था...मैं अपनी भावुकता को दबाने की कोशिश में जुटी थी...मैं शाम के 5 बजे वहां पहुंची...ठंड का मौसम था...हालांकि उस दिन मौसम ख़ुशनुमा था...मैंने आश्रम के अधिकारियों से वृद्धों के बीच कुछ पल गुज़ारने की इजाज़त मांगी...वो तैयार हो गए...मैं वृद्धों के कमरे में पहुंची…कुछ लोग आराम कर रहे और कुछ अपने दिनभर का काम निपटा रहे थे...अधिकारियों ने उन्हें बाहर आने के लिए कहा...उन्होंने वृद्धों को बताया की हम उनके साथ पहली तारीख़ सेलिब्रेट करना चाहते हैं...सभी एक-एक कर बाहर आने लगे...बाहर एक छोटा सा मंदिर बना था...जहां वे लोग रोज सुबह शाम पूजा अर्चना किया करते थे...वैसे भी संध्या की बेली नज़दीक थी...मैंने सबको बैठने का इंतज़ाम करवाया....वृद्धजनों से मैंने निवेदन किया की आज वो मेरे साथ अपनी खुशियां बांटेंगे...गाएगे बजाएंगे...अधिकारियों ने ढोल का इंतज़ाम कराया...पूजा अर्चना शुरू हुई...औऱ धीरे-धीरे समां बंधने लगा...मैं संगीत की इस अनोखी शाम को खूब इंज्वॉय किया...बुजुर्गों ने भगवान के भजनों की तो झड़ी लगा दी...आसपास कुछ बच्चे रहते थे वे भी तैयार होकर वहां आ गए और झूम-झूमझूमकर नाचने लगे...मुझे बेहद खुशी हो रही थी कि मैंने इन बुजुर्गों के चेहरे पर थोड़ी मुस्कान बिखेरी है...

अब बारी थी उनकी बाइट लेने की मैंने एक बुजुर्ग महिला से आज के दिन हमारे साथ बिताए पलों के बारे में जानना चाहा...उस महिला ने मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए कहा बेटा ‘तुम आए तो हमने इसे आज हंसी खुशी मनाया नहीं तो बस रोज की तरह ही हम अपना काम निपटा कर सो जाते....हमारे लिए क्या होली क्या दीवाली सब दिन एक समान ही तो है’…मैं थोड़ी भावुक हुई जा रही थी...लेकिन मेरे साथ गए कैमरा मैन ने मुझसे कहा मैडम आप इनके यहां आने का कारण पूछिए...ये वृद्धाश्रम क्यों आए हैं? इनमें से कुछ बुजुर्ग तो काफी अच्छे परिवार से लग रहे हैं...मुझे एक अच्छा प्वाइंट मिल गया था पूछने के लिए...मैंने एक दो बुजुर्गों से पूछा कि आप इस आश्रम में क्यों आए...इसपर ज्यादातर लोगों ने चुप्पी साध ली थी...किसी ने बताया मेरे घर में बहुओं से नहीं पटती तो किसी ने कहा नाती ने कुछ कह दिया इसलिए आन-बान और शान कि ख़तिर में मैं यहां आ गई...एक दो लोगों से मैंने उनके यहां आने की पूरी कहानी जाननी चाहती थी...लेकिन कोई वो बताने के लिए तैयार ही नहीं हो रहे थे.....मैंने धीरे-धीरे अपनी बातों में उन्हें उलझाने की कोशिश की और उनके अंदर का दर्द जानने का प्रयास किया.. काफी मशक्कत के बाद कुछ लोगों ने मुझे अपनी इंसाइड स्टोरी बयां की...दो-तीन लोगों की बाइट लेकर मैं वापस अपने ऑफिस आने के लिए रवाना हो गई...मैं जब गाड़ी में बैठी तो मुझसे कैमरामैन कहने लगा...अरे मैडम आपको पता नहीं है...इनमें से कई बुजुर्गों को तो उनके परिवारवाले बड़ी ही बेरहमी से निकाल देते हैं...और पलट कर कभी इन्हें देखने नहीं आते...

मुझे याद है जब एक बार एक रिपोर्ट ने मध्यप्रदेश के किसी वृद्धाश्रम पर स्टोरी दिखाई थी...एक बुज़ुर्ग का दर्द बयां किया था...लेकिन कुछ दिन बाद ही उस बुजुर्ग के परिजनों का बयान आया...दरअसल उस बुजुर्ग का बेटा विदेश में रहता था...उसके परिवार के कुछ सदस्यों ने बुजुर्ग के बेटे को फोन किया को कहा कि आपके पिता की स्टोरी टीवी पर दिखाई जा रही है...और वो रो रो कर अपनी कहानी बता रहे हैं...उसके बाद तो बुजुर्ग के बेटे ने रिपोर्टर को फोन लगाना शुरू किया और सलाह दी कि ‘आपको मेरे पिता से इतनी हमदर्दी है तो आप ही मेरे पिता को अपने घर में क्यों नहीं रख लेते’...दरअसल ये बुजुर्ग आर्मी से रिटायर्डे थे और अपने घर में भी आर्मी जैसे ही माहौल चाहते थे...एक मिनट की भी देरी इन्हें बेहद खलती थी...उनके कड़े रूख के कारण बेटे और बहू उन्हें अपने साथ नहीं रखना चाहते थे...

मैंने वृद्धाश्रम में बुजुर्गों के साथ बिताए पलों पर स्टोरी लिखी...पैकेज बनाया और वो पैकेज बुलेटिन में कई बार चला...अपनी शिफ्ट पूरी कर मैं घर वापस आ गई...रात को सोते वक्त मेरी नज़रों के सामने वही तस्वीरें घूम रही थीं...मैं बैचैन थी...आख़िर बुढ़ापे में लोग अपने माता पिता को कैसे इस कदर छोड़ देते हैं...क्या इन बुजुर्गों का मन नहीं होता होगा अपने परिवार की खुशियों में शरीक होने का...उनके साथ त्योहार मनाने का...अपने खून के रिश्तों से मिलने का...मैं गहन चिंतन में डूब गई...
हमारी हमदर्दी बुजुर्गों के प्रति तो होती ही है लेकिन क्या इन बुजुर्गों को भी थोड़ा सामंजस्य स्थापित कर नहीं चलना चाहिए...ताकि सामने वाले को भी कोई परेशानी न हो और आप भी खुशी खुशी रह सकें...देखा जाए तो आज की पीढ़ी हरफनमौला की तरह जिंदगी जीती है...उनकी जिन्दगी में रोक-टोक लगाने वालों के लिए कोई जगह नहीं...खासकर युवा पीढ़ी किसी रोक-टोक को बर्दास्त नहीं करती...बुढ़ापे में लोगों को अगली पीढ़ी के साथ सामन्वय कर चलना होगा ताकि उन्हें ये दिन न देखना पड़े...

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