रविवार, अप्रैल 4

शादी का फंडा


"वक्रतुंड महाकाय सूर्यकोटी समप्रभ

निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्व कार्येषु सर्वदा "

शादी...एक पवित्र रिश्ता....एक ऐसा बंधन जिसका नाम सुनते ही दिल में एक अजीब सी हलचल होती है...इसे कोई जन्मों जन्मों का बंधन करार देता है...तो कोई इसे सामाजिक बंधन...लेकिन हर दिल शादी के सपने संजोता है...हर किसी की जिन्दगी में शादी का अपना महत्व है....इस रिश्ते में बंधने से पहले की अनुभूति भी बेहद अजीब होती है...चाहे वर हो या वधु दोनों सपनों की दुनिया में प्रवेश कर जाते है...अजब-अनोखे सपने बुनते है....और अपनी शादी को सबसे यादगार बनाने की ख्वाहिश
में डूब जाता है....जिंदगी में एक बार ही शादी होती है....तो भला लाइफ पार्टनर भी क्यों न हो बेहद खास...सबसे अच्छा....सबसे खूबसूरत...और सबसे अहम बात तो ये कि....वो हो आपकी पसंद के अनुसार...साथ ही घर वालों की भी पसंद में खरा उतरे....'तो सोने पे सुहागा'...ऐसे में भले ही तलाश में थोड़ा वक्त लगे लेकिन...युवा अपनी शादी में कोई Compromise नहीं करना चाहते...अरे भाई करे भी क्यों…पूरी Life का सवाल जो है.....

हमारे देश में हर जाति हर धर्म में इतने रीति रिवाज हैं कि लोग इसमें बंधने के एसहास मात्र से पुलकित हो उठते है...सबसे पहले तो शादी के लिए अच्छे वर-वधु की तलाश में लंबा वक्त निकल जाता है...परेशानियां अलग होती हैं....लड़की ही नहीं लड़के के पिता को भी अच्छे मैच के लिए जूते घिसने पड़ते हैं....बात जब पक्की हो जाती है तो...शादी की तैयारियों में महीनों बीत जाते हैं....शादी में दोनों पक्ष के खर्चों की बिल की फेहरिस्त भी काफी लंबी-चोड़ी होती है...शादी की पूरी विधि भले ही दो चार दिनों में निपट जाती हो...लेकिन वर-वधु के सामने नाते-रिश्तेदार होते हैं...उनके लिए ये दिन बेहद स्पेशल होता है...कहने का मतलब हमारे देश में शादियों के लंबे समय तक टिकने की सबसे बड़ी वजह यही होती है...यहां के रीति रिवाज इतने लंबे चौड़े होते हैं कि दुल्हन और दूल्हे को लगता है कि ये भला कैसे टूट सकता है....कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो जन्मों जन्मों के इस बंधन को चाहते हुए भी वो नहीं तोड़ पाते हैं....शादी टूटने से पहले उनके सामने होती हैं वो सारी यादें नाते रिश्तेदारों का साथ...सबके चेहरे की मुस्कान और सबसे अहम अग्नी के सामने जन्मों-जन्मों तक साथ निभाने की कस्में उन्हें याद आ जाती हैं जो उन्हें फिर से पिरो देतीं हैं एक सूत्र में.....

आज युवाओं के पास वाकई सब कुछ है। युवा कहने का मतलब केवल वर नहीं इस फेहरिस्त में अब वधुएं भी शामिल हो गई हैं...बेहतरीन करियर, बैंक बैलेंस, घर, गाडी, सुख-सुविधाएं, दोस्त..। इन सबके बीच शादी कहां है? ओह गॉड, ऐसी भी क्या जल्दी है! कुछ दिन तो चैन से जीने दो...अक्सर युवाओं का जवाब ऐसा ही होता है।


एक फ्रेंच कहावत है कि युवा उम्मीद में जीते हैं, बूढे यादों में, लेकिन युवा वर्ग की ये उम्मीदें इतनी होती हैं कि जिंदगी के अन्य पहलुओं के बारे में सोचने का मौका नहीं मिलता। शादी भी उनकी प्राथमिकता सूची में पीछे खिसकती जा रही है।


मेरा एक दोस्त था...जिसे शादी के बारे में पूछो तो बड़ा उखड़ा सा जवाब देता था....कहता ‘’बेवकूफ लोग ही शादी करते है’’....हालांकि कुछ दिनों बाद ही उसकी शादी तय हो गई...शादी के बाद जब वो शख्स लौटा तो उसकी बातों में....उसके सोचने के तरीके में बदलाव साफ-साफ झलकता था...अब उसकी जिंदगी काफी संवर गई थी...उसकी राय भी बदल गई थी...उससे जब हमने शादी के बारे में पूछा तो उसने बड़े सरल अंदाज में जवाब दिया...’’यार कुछ भी कहो शादी के बाद जिंदगी और भी हसीन हो जाती है’’..











पिछले कुछ वर्षो में शादी की उम्र तेजी से आगे खिसकी है। महानगरीय युवाओं में सिंगल रहने के साथ ही लिव-इन रिलेशनशिप का ट्रेंड बढ़ रहा है। शादियां भी हो रही हैं, लेकिन उस तरह नहीं, जैसी अपेक्षा पुरानी पीढ़ी को थी। रिश्ते जन्म-जन्मांतर के बंधन के बजाय सुविधा बनते जा रहे हैं। वैसे देखा जाए तो सभी लड़कों या लड़कियों पर इस तरह के आरोप नहीं लगाए जा सकते...हां दो चार ऐसे मामले सामने आए तो इसका मतलब ये कतई नहीं है कि जितने भी लड़के या लड़कियां घर से बाहर रहकर नौकरी कर रहे हैं सभी एक जैसे हो...कहने का मतलब सभी लिव इन रिलेशनशिप में यकीन करते हो ऐसा बिल्कुल नहीं है....उनमें से कई ऐसे होते हैं जो अपने संस्कारों को नहीं भूलते....महानगर हो या दुनिया का कोई भी कोना...इस-तरह के रिलेशनशिप में वो यकीन नहीं करते....हां इसके लिए एक बात बेहद अहम हैं घर से बाहर रहनेवालों को समझने की जरूरत हैं....आप बिना सोचे समझे उनपर ऐसे आरोप नहीं मढ़ सकते...ऐसा भी नहीं है कि उनके सामने ऐसे प्रस्तावों की कमी है...लेकिन उनके लिए उनका परिवार ज्यादा मायने रखता है...
माता-पिता लाडले बेटे को दूसरे शहर या देश भेजने से पहले केवल सर्वगुणसंपन्न व गृहकार्य में निपुण लड़की के पल्ले उन्हें नहीं बांध पाते।
लड़कों को चाहिए उनके साथ कदम से कदम मिलाकर चलने वाली लड़की....उनके दोस्तों के समक्ष बेहतर दिखने वाली लड़की...जिन्हें वो शान से introduce करा सके....इस पवित्र रिश्ते के चयन में बदलाव तो आया है, लेकिन बजाय इसकी आलोचना के उन स्थितियों-मूल्यों को समझने की कोशिश की जानी चाहिए जो युवाओं की सोच को निर्धारित कर रही हैं। अब नौकरी पेशा लड़कियां भी अपने जीवनसाथी में सर्वगुण संपन्नता चाहती हैं....उनकी डिक्शनरी से भी समझौता शब्द निकल गया है...लड़की के लिए शादी काफी मायने रखता है...देखा जाए तो शादी के बाद वर और वधु दोनों की जिंदगी पूरी तरह बदल जाती हैं...ऐसे में लड़कियां भी चाहती हैं...उनका होने वाला पति उसे गहराई से समझे उसकी भावनाओं की कद्र करे....वाकई युवाओं के लिए विवाह का निर्णय लेना मुश्किल होता रहा है... क्योंकि करियर बनाना इतना आसान नहीं....आज भी छोटी से छोटी नौकरी पाना बेहद मुश्किल हैं....कैरियर बनाना और उसे एक अच्छे मुकाम तक पहुंचाना पापड़ बेलने से कम नहीं....हालांकि लड़कियां भले ही करियर को प्राथमिकता दोती हों....लेकिन उसे परिवार और पति से प्यारा करियर नहीं होता...शादी के बाद यदि पति उसे नौकरी छोड़ने की सलाह देता है तो भी वो खुशी-खुशी अपनी नौकरी को तिलांजली देने को तैयार हो जाती है....वैसे देखा जाए तो अब लड़के भी लड़कियों के करियर को प्राथमिकता देते हैं और चाहते हैं शादी के बाद उसकी पत्नी का करियर चौपट न हो...आज के युवा शादी या कमिटमेंट से बचते हैं। करियर के चलते शादी में देरी हो ही जाती है।
लेकिन युवा कोई जल्दबाजी नहीं करना चाहते...
शादी को लेकर लडकों में भी अलग तरह का भय रहता हैं। उन्हें लगता है..पता नहीं लड़की उनकी भावनाओं को समझ पाएगी या नहीं...परिवारवालों को अपना पाएगी या नहीं...कहीं उसके आने से परिवार में बिखराव न आ जाए...लड़की अगर खर्चीली मिली तो कहीं उसका बजट न बिगड़ जाए....लड़कों का सोचना है कि शादी का फैसला माता-पिता ही लें तो बेहतर है। उन्हें लगता है पैरेंट्स ही बहू चुनें तो बाद में मुश्किल नहीं होगी। माता-पिता भी अपने विचार बच्चों पर नहीं थोप पाते...उन्हें काफी सोच समझ कर फैसला लेना पड़ता है...उन्हें लगता हैं उनका एक निर्णय उसके बच्चे की जिंदगी पर बोझ न बन जाए...


इस पूरे प्रकरण में पिसती है तो बेचारी लड़की...एक लड़की शादी के न जाने कितने सपने संजोती है...लेकिन जैसे-जैसे शादी की असलियत उसके सामने आती है बेचारी खुद पर भरोसा करना भूल जाती है...उसे लड़के वाले उसकी एक-एक कमी का एहसास दिला जाते हैं...माता-पिता ने भले ही कितने ही नाजों से उसे पाला हो....दुनिया की कोई परेशानी उसके सामने न आने दी हो...लेकिन जब लड़के वालों को दिखाने की बारी आती है...बेचारे लड़की के पिता बेबस और लाचार नजर आते हैं...एक एक कदम उन्हें सोच समझ कर रखना पड़ता है...एक एक शब्द नाप-तौल कर बोलना पड़ता है...न जाने कौन सी बात उन्हें बुरी लग जाए...भले ही कितनी भी अच्छी लड़की हो लड़के वालों की नजर उसकी अच्छाइयों से पहले उसकी कमियों की ओर जाती हैं...उन्हें चाहिए सर्वगुणसंपन्न लड़की...लड़का अगर नौकरी पेशा है तो उनके नखरे भी उतने ही ज्यादा होते हैं...समाज में इतना भेदभाव क्यों है?...ऐसा लगता है जैसे लड़की के पिता ने लड़की पैदा कर कोई गुनाह किया हो...अरे भाई उन्हें ये क्यों समझ में नहीं आता कि अगर कोई कमी है तो उसे बाद में भी पूरा किया जा सकता है....क्या लड़के वालों को इसका जरा भी एहसास है कि एक लड़की पर क्या बीतती है...उसे कितना बड़ा झटका लगता है...क्यों एक लड़की लड़के में कमी होते हुए भी अपना मुंह नहीं खोल सकती....क्यों आज की युवा पीढ़ी आगे नहीं आती....आज भी हम ऐसा मान्यताओं में जीने को मजबूर हैं....क्यों कोई खुलकर आवाज़ नहीं उठाता...लड़की इसलिए चुप बैठती है क्योंकि उसे इसी समाज में जीना है....कई बार लड़कियां अपने साथ हो रहे अत्याचारों के विरोध में आवाज नहीं उठा पातीं....क्योंकि लड़किया उन्हें सहने को मजबूर होती हैं...लेकिन एक लड़का सब कुछ जानते हुए सब कुछ समझते हुए भी क्यों चुप बैठा रह जाता है...क्यों हमेशा उसे अपना और अपने परिवार का पक्ष ही सही लगता है...एक लड़की की तरफ खुद को रखकर भला कोई क्यों नहीं सोचता....आपकी लड़की पढ़ी लिखी है...अच्छी नौकरी में हैं तो भी क्यों एक पिता को अपना सर झुका कर चलना पड़ता है...ये बाते मध्यमवर्ग तक ही सीमित नहीं है उच्च वर्ग में भी हमेशा लड़की वालों को ही झुकना पड़ता है...
मैं कुछ दिनों पहले टीवी पर एक सीरियल देख रही थी...सीरियल में एक बंगाली परिवार...यूपी अपनी बेटी का रिश्ता लेकर जाते हैं...लड़का भी लड़की को बेहद पसंद करता है...लेकिन लड़के की मां और एक रिश्तेदार लगातार लड़की के पिता को ज़लील करते हैं... ओफसोस की बात तो ये कि सब कुछ देखकर और समझकर भी लड़का चुपचाप बैठा देखता रह जाता है....कितनी अजीब बात है...इन कुरीतियों के ख़िलाफ़ आखिर आवाज कौन उठाएगा....हम कब तक इन्हें झेलने को मजबूर होंगे....क्या समाज में फैली इन कुरीतियों को दूर करने कभी कोई आगे नहीं आएगा...?
















हालांकि इसमें कुछ नकारात्मक भावनाएं भी आई हैं...पहले सात फेरे होते ही लड़का-लड़की एक-दूजे के हो जाते थे। अब वो एहसास गुम होने लगा है। रिश्तों में दखलअंदाजी भी पहले इसलिए होती थी कि पति-पत्‍‌नी एक-दूसरे का साथ निभा सकें। अब यह नकारात्मक ज्यादा हो रही है। रिश्ता अब प्राइस टैग से जुड गया है। वर कितना कमाता है, वधु क्या लाएगी.., इनके बीच जीवन की खूबियां पीछे छूट रही हैं। कितना पाया-कितना खोया जैसा हिसाब जब करीबी रिश्तों में होने लगता है तो छोटी-छोटी खुशियां दूर जाने लगती हैं।
माता-पिता भी अब बहुत रोक-टोक नहीं करते। सामाजिक मूल्य बदले हैं। युवा भी शादी का फैसला आंख खोलकर लेना चाहते हैं। लड़कियों की निर्णय-क्षमता बढ़ी है। लेकिन लड़के भी अपने परिवारवालों के सामने कुछ बोल नहीं पाता...समाज में कई बार देखने को मिला है कि...लड़कियों ने दहेज या लड़के वालों की किसी नाजायज बात पर बारात को बैरंग भी लौटा दिया। ये खबरें छोटे शहरों की रही हैं। लडकियों की इस निर्णय-क्षमता की सराहना की जानी चाहिए। ये तो शुरुआत है, समाज में होने वाला हर बदलाव बेहतरी के लिए हो। इस राह में थोड़ी हानि हो, तो उसे इसलिए स्वीकारा जाना चाहिए कि वो बेहतर भविष्य के लिए है... शादी क्योंकि जिंदगी भर का फैसला होता है। आपका जीवनसाथी आपसे ज्यादा दहेज को महत्व दे....ये किस हद तक सार्थक है...ऐसे में आपकी अच्छाईयां धरी की दरी रह जाती है...लेकिन कई बार सबकुछ देखकर भी लड़की कुछ न कहने...कुछ न करने पर मजबूर होती है...क्योंकि उसे अपने घर परिवार की इज्जत बेहद प्यारी होती है... मैं ऐसे लोगों से इतना ही अनुरोध करूंगी कि रिश्तों को सौदे की शक्ल ना दें...आप अपने बेटे के लिए जीवनसाथी चुनने जा रहें है ना कि आप अपने बेटे को सौदा कर रहे हैं...



शादी जिंदगी का बहुत बड़ा फैसला है, जिसे सोच-समझकर लिया जाना चाहिए। देर से शादी हो तो इसमें कोई बुराई नहीं है। जरूरी ये है कि पहले मानसिक तौर पर आप तैयार हों...सिंगल बट नॉट रेडी टू मिंगल, यही आज का मंत्र बन चुका है।




नई पीढी आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर है। शादी अब कमिटमेंट से ज्यादा कंपेनियनशिप है। हम पारिवारिक मूल्यों से अलग नहीं हो सकते, हम कहीं भी जाएं, अपनी जड़ों की ओर लौटते हैं। जीवन में संतुलन जरूरी है। आज के दौर में करियर या परिवार..जैसा कोई मुद्दा है ही नहीं। दोनों को एक साथ संतुलित ढंग से चलाना ही सही अर्थ में आधुनिकीकरण है। हम कहते हैं शादी सात जन्मों का बंधन हैं...लेकिन क्यों एक जन्म में ही वो हमें बोझ लगती हैं...क्योंकि इसके लिए बेहद जरूरी है कि जीवनसाथी आपके अनुसार हो...और ये तभी संभव है जब आप सोच समझ कर शादी का फैसला लें..अपनी आंख-कान खुली रख कर सोच विचार कर फैसला लें....तभी आपका एक जीनव सहीं ढंग से खुशी-खुशी निकलेगा...और दूसरे....तीसरे...चौथे...पांचवें...छठे...और....सातवें जन्म भी वैसे ही गुजर जाएंगे....



''सर्वमंगल-मांगल्ये शिवे सर्वाथॆ-साधीके॥"

7 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत उम्दा आलेख और विस्तृत विवेचन! आभार!

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  2. बेनामीअप्रैल 04, 2010

    आज की शादी व्यवस्था पर बेहतरीन लेख

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  3. शादी पर सुन्दर लेख... मै आपके इस लिंक को शुक्रवार को चर्चामंच पर रख रही हूँ... आभार..

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  4. शादी पर आपका लेख बेहतरीन... मै आपके इस लेख को शुक्रवार १८ को चर्चामंच पर रखूंगी.. आभार

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  5. बहुत सटीक और सुन्दर लेख ...अच्छा विश्लेषण किया है ...

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  6. बेनामीफ़रवरी 05, 2011

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