शुक्रवार, अक्तूबर 29

ऐ सूरज
तू इतना बेरहम क्यों हो गया है
अब कहीं ज्यादा
तो कहीं कम चमकने लगा है?(ध्रुव)

क्या तूने अमीरों-गरीबों में
भेद करना सीख लिया है?

अमीर तो फिर भी
अपनी हिफाजत कर लेते हैं
लेकिन हर रोज
पिसते बेचारे गरीब हैं

अमीर AC/ कूलर में रहकर
चुराते हैं तुझसे नजर

 
बेचारे गरीब नहीं जानते
तेरे जला देने वाले आक्रामक तेज को


दो जून की रोटी की खातिर
करते हैं तुझसे सामना
और बहाते हैं हर रोज
तेरे आगे खून पसीना


अब तू ही बता क्या मिलता है
तुझे उनकी मेहन की फसलों को जलाकर
क्या इससे होती है तेरी ज्वाला शांत
औऱ मिल जाता है तुझे सुकून


इससे भी तेरा मन नहीं भरता तो
तू भेज देता है अपनी सौतन को
जो अपने साथ बहा ले जाती हैं
किसानों की साल भर की मेहनत


चल...तू ही बता कितने अमीरों के घर
जलती है तेरे नाम की ज्योत?

कितने अमीर देख पाते हैं
तेरी पहली औऱ आखरी किरण के मिलन को?

क्यों करता है तू अपनों के साथ अन्याय
क्यों लेता है तू हर बार अपनों की ही अग्निपरीक्षा?

5 टिप्‍पणियां:

  1. दो जून की रोटी की खातिर
    करते हैं तुझसे सामना
    और बहाते हैं हर रोज
    तेरे आगे खून पसीना


    -यही तो विडंबना है...क्या कहें..बेहतरीन भाव!

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  2. आज कल का यही तो राग है जी...क्या कीजियेगा...जो लोग रहते हैं अपने बड़े आलिशान कमरों में, सूरज की रौशनी से बचने के लिए कितने प्रयास करते हैं...और एक तरफ वो लोग, जो धुप में ही घर बसाते हैं...

    बहुत अच्छी बात कही है..

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  3. very nice madhu ji and wish u a happy diwali and happy new year

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  4. और बेहतर ढंग से इस शानदार रचना को प्रस्तुत करें.
    --
    पंख, आबिदा और खुदा

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